Sunday, September 11, 2011

A poem by Unknown

रात को पता नहीं कोई गिनता है या नहीं
आसमान के तारों को योउ
कि कहीं कोई तारा रह तो नहीं गया आने से

सुबह को पता नहीं कोई कोई 
सुनता  कि नहीं सुनता 
कहीं कोई पंछी रह तो नहीं गया गाने से

 और दोपहर को वन भर पर दौराकर नज़र
 पता नहीं कोई देखता है कि नहीं देखता
 कि पानी सबने पी लिया है कि नहीं

 और शाम को ये कि जिसे जितना दिया गया था
 उतना उसने जी लिया है कि नहीं

This poem questions about the existence of supreme.
Is there any observer and care taker of this world.
How the nature balances with creation and death 
and this balancing act is pure unbiased.
Probably it is the only unbiased element in this world.
 



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