Wednesday, February 9, 2011

prashna

शीत से पहले कभी, मुरझा गए इन वृक्ष वन से
पूछता है प्रश्न कैसा यह विरल होकर सघन से
दे रहा है अर्थ न जाने किसे, क्यूँ भला
पर तुम्हारे अर्थ के सन्दर्भ में है प्रश्न क्या


मौन हो पर झर रहे हैं प्रश्न ऐसे
शाख से जैसे अलग
पर क्या विरह अलगाव का
छोड़ देता है जिसे
यह वृक्ष, स्वयं ऋतू के लिए
उस अनोखे द्रश्य के
पीछे छुपे अभिप्राय का


भोर जैसे एक प्रतीक्षा व्यग्र होते प्रश्न की
मौन मर ही जाता है
कलरव के मीठे शोर में
किसको पता चल पता है
प्रश्न यह कैसा  छुपा है
रोज सजते भोर में


प्रेम के पल, प्रश्न से यूँ सज रहे हैं
साज जैसे हो मधुर
पर प्रश्न का हो तार
हो उत्तरों की लालसा
पर हो नहीं आभार


किसलय - सानंद सुव्यक्त. 2007 copyright 

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